Jainath Memorial Inter College

प्रधानाचार्य संदेश

भारतीय जनमानस में शिक्षालय की तुलना देवालय से की गयी है क्योंकि दोनों में साधना प्रमुख है देवालय में जहां तप की साधना करके मनुष्य अपने नश्वर कामनाओं से मुक्त परमात्मा का सामिप्य प्राप्त करता है। उसी तरह देवालय में छात्र तप करके अपने अन्तर दोषों को गुरु से ज्ञान प्राप्त कर परिमार्जित करता है शायद इसीलिए गुरु को ‘आचार्य देवो भव' की उपमा प्रदान की गयी है। छात्र जब विद्यालय में प्रवेश लेता है बहुत सारी अज्ञानता, उत्सुकता उसके अन्तर्मन में निवास करती है। ऐसी स्थिति में एक आदर्श गुरू उसके अन्तर्मन के विकारों को अपने कठिन प्रयासों से दूर करके सद्गुणों का आरोपण से करते हुए छात्र के सद्ज्ञान की उत्सुकता को अपने ज्ञान से है तथा छात्र को पूर्ण मनुष्य के रूप में परिमार्जित करता है। कभी-कभी छात्र-गुरू एवं ज्ञान के बीच कुलगत संस्कार, सामाजिक कुरीति बाधक बन जाती है क्योंकि बाल्यावस्था में बालक का स्वभाव एवं विवेक प्राकृतिक रूप से स्वयं के गुण-अवगुण से मुक्त होता है ऐसे में माता-पिता एवं अभिभावक के द्वारा प्राप्त अनौपचारिक शिक्षा ही बच्चे में परिलक्षित होती है। इस तरह के अनौपचारिक शिक्षा में जहाँ बहुत सारे गुण होते है वहीं कुछ अवगुण भी अवचेतन मन में न चाहते हुए भी प्रविष्ट हो जाता है जो छात्र के कार्य कलाप में दृष्टिगत होता है। ऐसे में गुरु जब छात्र को सद्ज्ञान के द्वारा पूर्ण मनुष्य बनाने का प्रयास करता है तो उसके पूर्व संस्कार बाधक होते है। ऐसे में अभिभावक का पुनीत कर्तव्य होता है कि बच्चा बाल्यावस्था में जो भी अनौपचारिक ज्ञान अपने अभिभावकों से प्राप्त करे वह संस्कार युक्त एवं परिमार्जित हो। इसके लिए आवश्यक होगा कि हम स्वयं आत्म निरीक्षण करें अपने अन्दर ऐसे संस्कारों को विकसित करें जो भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणाप्रद हो। इसी बात को ध्यान में रखते हुए ऐसी ही एक संस्था सन 2009 में जयनाथ मेमोरियल इंटर कॉलेज के रूप में स्थापित हुई और 2010 में इसे हाई स्कूल एवम इंटरमीडिएट की विज्ञान एवं कला वर्ग के सभी विषयो की मान्यता माध्यमिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश प्रयागराज एवम शासन द्वारा प्रदान की गई ।सम्भवत: जब यह संस्था स्थापित हुई उस समय स्वस्थ सामाजिक संरचना के लिए संस्कार युक्त शैक्षिक संस्थाओं की नितान्त आवश्यकता थी। इन सामाजिक मूल्यों को पूर्ण संस्कारित ढंग से प्रचारित करने का क्रम में संस्था ने प्रारम्भिक काल से ही उन संस्कारों को अपने बच्चों में स्थापित करने का सफल प्रयास किया जो किसी पुस्तक के माध्यम से प्राप्त नहीं की जा सकती है। हमारे विद्यालय के संस्थापक डॉ0 सुरेंद्र मौर्य ने अपनी दूरदर्शिता से जब आसन, दण्ड, योग, प्राणायाम आदि समाज में प्रचारित नहीं थे तब भी उसे एक पूर्ण मनुष्य निर्माण के लिए आवश्यक मानते हुये विद्यार्थी की दिनचर्या में समायोजित करने का सफल प्रयास किया और आज भी अपने विद्यालय का अभिन्न अंग है। जब समाज अपने मूल उद्देश्यों से भटक गया हो। बच्चों में संस्कार प्राप्त करने के लिए अपने पाठ्यक्रम में कहीं कोई साधन न हो ऐसे में इन विद्यालयों की उपयोगिता और भी बढ़ जाती है। आज आवश्यकता है एक ऐसे सामाजिक प्रणेता की जो संस्कारवान युवक तैयार कर एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सके। शिक्षा अपने उद्देश्यों से भटक चुकी है आज की शिक्षा विज्ञान आदि का विशिष्ट ज्ञान देकर एक वैज्ञानिक चिकित्सक आदि का निर्माण कर सकती है किन्तु जो सर्वप्रथम आवश्यक है कि एक संस्कारवान मनुष्य का निर्माण करना, उस विद्या में सर्वथा असफल है। शायद तमाम सारे दोष दुर्गुणों का मुख्य कारण है मनुष्यत्व का अभाव आज अज्ञान के कारण मनुष्य भी पशुवत आचरण करने लगा है। इसीलिए आज के समाज में एक ऐसी शैक्षिक एवं सामाजिक संस्था तथा वातावरण की की अवश्यकता है जो समाज को अज्ञानता के अभाव से मुक्त करते हुए संस्कार युक्त एवं कैरियर युक्त शिक्षा प्रदान कर सके। मुझे बहुत खुशी है की मेरी संस्था इस क्षेत्र में 2009 से अनवरत प्रयास रत है और इसी तरह भविष्य में भी समाज के सभी वर्गो को इसका लाभ मिलता रहेगा ।